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शुक्रवार, 11 जून 2010

खरीफ में प्याज लगाये अधिक लाभ कमाये

प्याज एक महत्वपूर्ण सब्जी फसल हैं। इसका महत्व केवल स्थानीय खपत के साथ-साथ  निर्यात द्वारा विदेशी मुद्रा अर्जित करने के कारण भी है। भारत में उत्पादित प्याज की विदेशो में अच्छी मांग हैं। मात्रा के रुप में निर्यात में प्याज का स्थान प्रथम है। छत्तीसगढ़ में प्याज की खेती वृहद् पैमाने में आज भी नही होती है तथा जो उत्पादन होता है वह भी स्थानीय रुप से खपत हो जाता है। किसान प्याज की खेती वैज्ञानिक तरीके से कर न केवल अच्छी उपज ले सकता हैं बल्कि अच्छी गुणवत्ता के साथ निर्यात भी कर सकता है। प्याज की खेती मुख्यतया रबी के मौसम ही की जाती है परन्तु प्रयोगों से सिद्ध हुआ है कि खरीफ मे भी प्याज का अच्छा उत्पादन किया जा सकता है।

भूमि का चयन एवं तैयारी :-
प्याज की खेती बलुई दोमट एवं दोमट भूमि में अच्छी प्रकार से की जा सकती है। परन्तु बलुई एवं मटियार भूमि में भी उपयुक्त मात्रा में गोबर की खाद देकर प्याज सफलतापूर्वक लगाया जा सकता है खरीफ में खेती हेतु खेत चयन में सावधानी रखे कि चयनित भूमि में जल निकास की सुविधा हो एवं वर्षा का पानी खेत में जमा न होने पाये। प्याज की खेती 5.8 से 6.5 पी.एच.मान वाली भूमि में सर्वोत्तम होती है। भूमि को ग्रीष्म ऋतु में गहरी जुताई करने के बाद रोपाई करने के लिए दो-तीन बार कल्टीकेटर चलाकर भुर-भुरा बना लेना चाहिए।

किस्मों का चयनः
खरीफ में बोने के लिए ‘एग्री फाऊंड डार्क रेड’, ‘एन.53’, ‘अर्का कल्याण’, ‘अर्का प्रगति’, इत्यादि किस्मों की अनुशंसा की जाती है। ‘एग्री फाऊंड डार्क रेड’ रोपाई के 95-110 दिनों पश्चात् पककर तैयार होती एवं इसकी औसत उत्पादन 300 क्विंटल प्रति हेक्टर तक होती है।

पौध तैयार करने का समय :-
 नर्सरी में पौध तैयार करने के लिए बोआई 15-30 जून तक करना अति आवश्यक है। इसके बाद बोआई करने पर कंद के उत्पादन में र्फक पड़ता है। रबी की फसल के लिए बीज की बोआई 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक की जा सकती है।

नर्सरी तैयार करना :-
पौध तैयार करना प्याज की खेती में महत्वपूर्ण कार्य है। नर्सरी हेतु उपजाऊ, उपयुक्त जल निकास एवं सिंचाई की सुविधा युक्त भूमि का चयन करना चाहिए। एक हेक्टर में प्याज की खेती हेतु  7.5 मीटर लंबे, एक मीटर चैड़े, जमीन से 15 सेमी. ऊँचे बनाये गये पच्चीस नर्सरी बेड़ पर्याप्त होते है। प्रत्येक तैयार नर्सरी बेड़ में 40-50 कि.ग्रा. सड़ा हुआ गोबर खाद एवं आधा कि.ग्रा. 15:15:15 अनुपात वाला NPK खाद मिलाना चाहिए। प्याज के बीजो को 5-7 सेमी. दूरी पर नर्सरी बेड़ पर कतार में बोना चाहिए। 10-15 दिनों के अंतराल में 0.2% कैप्टान या 0.2%कॉपर आक्सी क्लोराईड नामक रसायन के घोल से नर्सरी बेड़ पर छिउ़काव करना चाहिए। एक हेक्टर बोवाई हेतु 6-8 कि.ग्रा. प्याज के बीज की आवश्यकता होती है। प्याज के बीज के बोने के पूर्ण 2.5 ग्रा.@कि.ग्रा. थायरम नामक फंफूदनाशक से उपचारित करना चाहिए। नर्सरी बेड़ का बीज बोने के पश्चात् घास या पुआल से ढक देना चाहिए। जिससे नमी मात्रा बनी रहती है एवं नाजुक अंकुर को तेज धूप से बचाया जाता है। नर्सरी की आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहना चाहिए। नर्सरी 6-8 सप्ताह में खेत में रोपाई के लिए तैयार हो जाती है।

रोपाई की दूरी :-
अच्छी प्रकार से तैयार खेत में प्याज की रापाई पंक्तियों में 15-20 से.मी. दूरी पर करना चाहिए। पौधें से पौधें की दूरी 8-10 से.मी. रखना चाहिए।

खाद एवं उर्वरकः-
भूमि के तैयारी के समय 25-30 टन प्रति हेक्टर सड़ा हुआ गोबर खाद अच्छी तरह मिट्टी में मिला देना चाहिए। उर्वरक की मात्रा का प्रयोग मिट्टी परीक्षण के आधार पर करना चाहिए। रोपाई के पूर्व मिट्टी में नत्रजन- 60 कि.ग्रा., स्फुर. 50 कि.ग्रा. एवं पोटाश 60 कि.ग्रा. देना चाहिए। इसके अतिरिक्त 60 कि.ग्रा. नत्रजन रोपाई के 30-40 दिन बाद निदाई गुउ़ाई के समय देना चाहिए। इसके अतिरिक्त प्याज को सुक्ष्म तत्व जैसे मैग्नीज, तांबा, जिंक मालिबडेनम एवं बोरान की भी उपयुक्त मात्रा आवश्यक होता है। मृदा परीक्षण में इन तत्वों की मात्रा कम होने पर प्रयोग करना चाहिए।

जल प्रबंधन:-
खरीफ में प्याज की खेतों में जल निकास की उचित व्यवस्था अत्यन्त महत्वपूर्ण है। साधारणतः खरीफ में सिंचाई की जरुरत नही पड़ती फिर भी दो बारिश के मध्य ज्यादा अंतराल होने पर खेत में पर्याप्त नमी बनाये रखने के लिए सिंचाई करनी चाहिए। रबी के मौसम में चार से छः दिनों में सिंचाई करना चाहिए। कंद विकास के समय फसल में पानी की कमी होने से उत्पादन अधिक प्रभावित होता है। अतः कंद विकास की अवस्था में सिंचाई की व्यवस्था करनी आवश्यक होती हे। 
निदांई-गुड़ाई :-
अच्छे प्याज उत्पादन हेतु खरपतवार नियत्रंण महत्वपूर्ण पहलू है। ख्रीफ के मौसम में खरपतवार अधिक होते है। अतः नियमित निदांई-गुड़ाई कर खेतों के खरपतवार को नियंत्रित रखना चाहिए। रासायनिक निंदा नियंत्रण हेतु बासालिन 1-1.5 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व प्रति हेक्टयर के हिसाब से करना चाहिए। इसके अतिरिक्त रोपाई के तुरन्त पहले स्टाम्प 3.5 लिटर प्रति हेक्टयर प्रयोग करने से प्रभावी खरपतवार नियंत्रण किया जा सकता है।
रोग प्रबंधन :-
(1) आर्द्रगलनः यह बीमारी मुख्य रुप से पौधशाला में होती है। इस रोग में पौध का निचला हिस्सा जो की जमीन के पास होता है, कवक के संक्रमण के कारण गल जाता है और पौध गिर जाती है।
इस रोग की रोकथाम के लिए उचित विधि से पौध प्रबंधन आवश्यक है। सर्वप्रथम पौधशाला की क्यारियों को जमीन से 15-20 से.मी. ऊपर बनाना चाहिए एवं पानी के निकास की उचित व्यवस्था रखनी चाहिए। बोने के पूर्व ‘कार्बेन्डाजिम या थायरम’ से 2.5 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से बीजोपचार करना चाहिए। केप्टान नामक फफ़ुंद नाशक से 2 ग्राम प्रति वर्गमीटर के हिसाब से बीज क्यारी को पानी के घोल से तर करना चाहिए। जिस स्थान पर पौध क्यारी बनानी है उस भूमि को ग्रीष्म ऋतु में गहरी जुताई कर पॉलीथीन शीट से सौर निर्जमीकृत करना चाहिए।

(2) बैगनी धब्बाः इस रोग में पत्तियों एवं पुष्प वृंत पर बैगनी केन्द्र वाले सफेद लंबवत धब्बे बनते है। ये धब्बे धीरे-धीरे बढ़ने लगते हैं एवं धब्बे का बैगनी भाग काला हो जाता है एवं पत्तियाँ पीली पड़कर सूख जाती है एवं पुष्प वृंत संक्रमित स्थान से टूट जाता है।
खरीफ की फसल में इस बीमारी का प्रकोप ज्यादा होता है। इस रोग के लक्षण प्रगट होने पर मेंकोजेब (3 ग्राम@लिटर) या कार्बान्डाजिम (2 ग्राम@लिटर) का पानी में घोल बनाकर 12-15 दिन के अंतराल में छिड़काव करना चाहिए। नत्रजन युक्त उर्वरक का अधिक प्रयोग नहीं करना चाहिए। प्याज में छिड़काव करते समय घोल में चिपकने वाले पदार्थ जैसे टिपॉल 2.5 ग्राम@लिटर (स्टिकर) का प्रयोग अवश्य करें ताकि घोल पत्तियों पर ठीक से चिपके क्योंकि प्याज की पत्तियाँ चिकनी एवं गोलाई युक्त होती है।

(3) मृदुल आसिता रोगः इस रोग के लक्षण पत्तियों एवं पुष्प वृंत पर सर्वप्रथम प्रगट होते है अधिक नमी एवं कम तापमान इस रोग के प्रकोप को बढ़ाने में सहायक होते है। इस रोग के प्रारम्भ में हल्के सफेद पीलापन लिए 8-10 से.मी. लम्बे धब्बे बनते है, धीरे-धीरे धब्बों का आकार बढ़ता है तथा संक्रमित स्थान से पत्तियाँ एवं पुष्प वृंत टूट जाते है एवं प्याज की बढ़वार रुक जाती है। उत्तर भारत में इस रोग का प्रकोप अधिक होता है। इस रोग की रोकथाम हेतु केराथेन कवक नाशक एक ग्राम प्रतिलीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करना चाहिए। आवश्यकतानुसार 15 दिन पश्चात् पुनः छिड़काव करना चाहिए।

(4) श्याम वर्ण (एंथ्रेक्नोज):- खरीफ में इस बीमारी का अधिक प्रकोप होता है क्योकि आकाश में बादलों के मौसम के कारण अधिक नमी एवं तापमान इसके प्रसार के लिए उपयुक्त होते है। इस रोग में पत्तियों पर भूमि के निकट राख के समान धब्बे प्रारंभिक अवस्था में बनते है। ये धब्बे धीरे-धीरे बढ़कर पूरी पत्ती पर फैल जाते है एवं संक्रमित पत्ती मुरझाकर सूख जाती है। इस प्रकार पत्तियों पर संक्रमण से कंदों की वृद्धि रुक जाती है।
इस रोग के लक्षण दिखाई देने पर मेंकोजेब (3 ग्राम@लिटर) या कार्बेन्डाजिम (2 ग्राम@लिटर) दवा को पानी के घोल में छिड़काव रोग नियंत्रण होने तक 12-15 दिन के अंतराल में करना चाहिए। रोपाई के पूर्व पौधों को कार्बेन्डाजिम (2 ग्राम@लिटर) के घोल में डुबाकर लगाने से रोग का प्रकोप कम होता है। खेतों में जलनिकास का उचित प्रबंधन करना चाहिए एवं पौधशाला में बीज अधिक घना नहीं बोना चाहिए।

(5) आधार विगलनः अगस्त-सितम्बर के महीने में अधिक आद्र्रता एवं अधिक तापमान में इस रोग का प्रकोप अधिक होता है। इस रोग के प्रारंभिक लक्षण कम वृद्धि एवं पत्तियों का पीला पड़ना है। इसके बाद पत्तियाँ ऊपर से सूखनी प्रारम्भ होती है एवं मुरझाकर सड़ने लगती है। पौधों की जड़ों में भी सड़न होने लगती है एवं पौधे आसानी से उखड़ जाते है। अधिक प्रकोप होने पर कंद भी जड़ वाले भाग से सड़ने लगते है।
इस रोग से बचाव हेतु गर्मी में गहरी जुताई कर खेत को खुला छोड़ना चाहिए। पॉलीथीन की चादर से भूमि का सौर उपचार करना चाहिए। चूंकि रोगजनक कवक भूमिगत रहते है इसलिए उसी खेत में बार-बार प्याज नहीं लगाना चाहिए एवं फसल चक्र अपनाना चाहिए। बाविस्टिन या थायरम 2 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से बीजोपचार करना चाहिए।

कीट प्रबंधन :-
थ्रिप्सः ये प्याज का प्रमुख रुप से हानि पहुंचाने वाला कीट है। ये बहुत ही छोटे आकार के होते है जिनकी पूर्ण विकसित होने पर लंबाई एक मि.मी. होती है। इनका रंग हल्का पीले से भूरे रंग का तथा छोटे-छोटे गहरे चकत्ते युक्त होता है। ये कीट पत्तियों का रस चूसते है जिससे पत्तियों पर असंख्य सफेद निशान बन जाते है। अधिक प्रकोप से पत्तियों के शिरे सूखने लगते हैं एवं मुड़कर झुक जाती है। फसल की किसी भी अवस्था में इस कीट का आक्रमण हो सकता है। थ्रिप्स द्वारा पत्तियों पर किये घाव से अन्य कवक पौधों में प्रवेश कर रोग उत्पन्न करते है। अतः इस कीट का प्रकोप बढ़ने से रोगों का प्रकोप भी अधिक देखा गया है। रबी के मौसम में विशेषकर मार्च माह में इस कीट द्वारा अधिक नुकसान देखा गया है। इस कीट के नियंत्रण हेतु सर्वप्रथम रोपाई के पूर्व पौधों की जड़ों को दो घंटे तक कार्बोसल्फान एक मिली@लिटर पानी के घोल से उपचारित करना चाहिए। फसल में कीट नियंत्रण हेतु 12-15 दिन के अंतराल पर डायमेथोएट (1 मिली@लिटर) या सायपरमेथ्रिन (1 मिली@लिटर) के घोल का छिड़काव करना चाहिए। कीटनाशक के सही प्रभाव हेतु चिपकने वाले पदार्थ (स्टिकर) जैसे सेन्डोविट या टीपॉल(2.5 ग्राम@लिटर) का प्रयोग करना चाहिए।

कटवाः इस कीट की सूंडियाँ या इल्ली जो कि 30-35 मिली मीटर लंबी एवं राख के रंग की होती है, पौधों की जमीन के अंदर वाले भाग को कुतर कर नुकसान पहुंचाती है। जिससे पौधे पीले पड़ने लगते है एवं आसानी से उखड़ जाते है।
इस कीट की रोकथाम हेतु फसल चक्र अपनाना चाहिए। आलु के बाद प्याज की फसल नहीं लगाना चाहिए। रोपाई के पूर्व थिमेट 10जी 4 किग्रा@एकड़ या कार्बोफ्यूरान 3जी 14 कि.ग्रा.@एकड़ की दर से खेत में मिलाना चाहिए। 

प्याज की खुदाई :-
सामान्यतः जब प्याज के कंद परिपक्व हो जाते है तो पत्तियां पीली होकर गिरने लगती है। प्याज की फसल रोपाई के 4-5 माह में परिपक्व हो जाती है। इस समय सिंचाई-खुदाई के 10 दिन पूर्व रोक देना चाहिए, पत्तियों को पैरो से या ट्रेक्टर चालित यंत्रो से तोड़ दिया जाता है जिससे प्याज की गर्दन टूट जाये इसे फसल गिराना कहते है। इस प्रक्रिया के एक सप्ताह बाद प्याज के कंदो को खोदकर निकालना चाहिए। खोदे हुए कंदो की सूखी पत्तियों एवं जड़ों को काटकर इन्हे छायादार पेड़ या सेड में एक सप्ताह तक सूखाया जाता है। खरीफ में उत्पादित प्याज को लंबे समय तक भंडारण नही किया जा सकता अतः इसे तुरंत ही बाजार में खपत हेतु बेच देना चाहिए। रबी में मौसम में उत्पादित प्याज को अच्छी तरह सुखा कर, कटे, सड़े-गले एवं कमजोर गर्दन वाले प्याज को छाटकर भंडारण करना चाहिए। उचित फसल प्रबंधन से 250 से 350 क्विंटल तक पैदावार ली जा सकती है।

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रविवार, 6 जून 2010

ग्रीष्मकालीन भिंडी उत्पादन की उन्नत तकनीक

ग्रीष्मकालीन सब्जियों में भिंडी का प्रमुख स्थान है। ग्रीष्मकाल में भिंडी की अगेती फसल लगाकर किसान भाई अधिक लाभ अर्जित कर सकते है। मुख्य रुप से भिंडी में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट खनिज लवणों के अतिरिक्त विटामिन ‘ए’, ‘सी’ थाईमीन एवं रिबोफ्लेविन भी पाया जाता है। भिंडी के फल में आयोडीन की मात्रा अधिक होती है। भिंडी का फल कब्ज रोगी के लिए विशेष गुणकारी होता है। इस लेख में ग्रीष्मकालीन  भिंडी की उत्पादन तकनीक की विवेचना की गयी हैः-
जलवायु एवं भूमि की तैयारीः- भिंडी के उत्पादन हेतु गर्म मौसम अनुकुल होता है। बीजों के अंकुरण हेतु 20 सेंटीग्रेड से कम का तापमान प्रतिकूल होता है। 42ñ सेंटीग्रेड से अधिक तापमान पर फूल का परागण नहीं होता है एवं फूल गिर जाते है। 
सामान्यतः भिंडी की खेती सभी प्रकार की भूमियों पर की जा सकती है परन्तु हल्की दोमट मिट्टी जिसमें पर्याप्त मात्रा में जीवांश उपलब्ध हो एवं उचित जल निकास की सुविधा हो, भिंडी की खेती हेतु श्रेष्ठ होती हैं। भूमि की दो-तीन बार जुताई कर भूरभूरा कर तथा पाटा चलाकर समतल कर लेना चाहिए।
उन्नत किस्में- अर्का अभय, अर्का अनामिका, परभणी क्रांति, पूसा-ए-4, वर्षा उपहार,
बीज एवं बीजोपचारः- ग्रीष्मकालीन फसल हेतु 18-20 कि.ग्रा. बीज एक हेक्टर बुवाई के लिए पर्याप्त होता है जबकि वर्षाकालीन फसल में अधिक बढ़वार की कारण 12-15 कि.ग्रा. बीज प्रति हेक्टर उपयोग करना चाहिए। ग्रीष्मकालीन भिंडी के बीजों को बुवाई के पूर्व 12-24 घंटे तक पानी में डुबाकर रखने से अच्छा अंकुरण होता है। बुवाई के पूर्व भिंडी के बीजों को 3 ग्राम थायरम या कार्बेन्डाजिम प्रति किलो बीजदर से उपचारित करना चाहिए। संकर किस्मों के लिए 5 कि.ग्रा. प्रति हेक्टर की बीजदर पर्याप्त होती है।
बुवाईः- ग्रीष्मकालीन भिंडी की बुवाई फरवरी-मार्च में की जाती है। फिर भी अगेती फसल हेतु छत्तीसगढ़ क्षेत्र में 15 जनवरी के बाद भी बुवाई की जा सकती हे। यदि भिंडी की फसल लगातार लेनी है तो तीन सप्ताह के अंतराल पर फरवरी से जुलाई के मध्य अलग-अलग खेतों में भिंडी की बुवाई की जा सकती है। 
 ग्रीष्मकालीन भिंडी की बुवाई कतारों में करनी चाहिए। कतार से कतार दूरी 25-30 सें.मी. एवं कतार में पौधे की मध्य दूरी 15-20 से.मी. रखनी चाहिए। वर्षाकालीन भिंडी के लिए कतार से कतार दूरी 40-45 सें.मी. एवं कतारों में पौधे की बीच 25-30 सें.मी. का अंतर रखना उचित रहता है।
पोषण प्रबंधनः- भिंडी की बुवाई के दो सप्ताह पूर्व 250-300 क्विंटल सड़ा हुआ गोबर खाद मिट्टी में अच्छी तरह मिला देना चाहिए। प्रमुख तत्वों में नत्रजन, स्फुर एवं पोटाश क्रमशः 60 कि.ग्रा., 30 कि.ग्रा. एवं 50 कि.ग्रा. प्रति हेक्टर की दर से मिट्टी में देना चाहिए। नत्रजन की आधी मात्रा स्फुर एवं पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के पूर्व भूमि में देना चाहिए। नत्रजन की शेष मात्रा को दो भागों में 30-40 दिनों के अंतराल पर देना चाहिए।
जलप्रबंधनः- यदि भूमि में पर्याप्त नमी न हो तो बुवाई के पूर्व एक सिंचाई करनी चाहिए। गर्मी के मौसम में प्रत्येक पांच से सात दिन के अंतराल पर सिंचाई आवश्यक होती है। बरसात में आवश्यकतानुसार सिंचाई करनी चाहिए तथा अतिवृष्टि के समय उचित जलनिकास प्रबंध करना चाहिए।
निदाई-गुड़ाईः- नियमित निंदाई-गुड़ाई कर खेत को खरपतवार मुक्त रखना चाहिए। बोने के 15-20 दिन बाद प्रथम निंदाई-गुड़ाई करना जरुरी रहता है। खरपतवार नियंत्रण हेतु रासायनिक नींदानाशकों का भी प्रयोग किया जा सकता है। बासालिन को 1.2 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व को प्रति हेक्टर की दर से पर्याप्त नम खेत में बीज बोने के पूर्व मिलाने से प्रभावी खरपतवार नियंत्रण किया जा सकता है।
फल की तोड़ाई एवं उपजः- किस्म की गुणता के अनुसार 45-60 दिनों में फलों की तुड़ाई प्रारंभ की जाती है एवं 4 से 5 दिनों के अंतराल पर नियमित तुड़ाई की जानी चाहिए। ग्रीष्मकालीन भिंडी फसल में उत्पादन 60-70 क्विंटल प्रति हेक्टर तक होता है।
पौध संरक्षणः- भिंडी के प्रमुख रोग पीत शिरा मौजक एवं चूर्णिल आसिता एवं नुकसानदायक कीट प्ररोेह एवं फल छेदक तथा जैसिड है।
पीत शिरा रोगः- यह भिंडी की फसल में नुकसान पहुचाने वाला प्रमुख रोग है। इस रोग के प्रकोप से सर्वप्रथम पत्तियों की शिराएं पीली पड़ने लगती है। तत्पश्चात पूरी पत्तियाँ एवं फल भी पीले रंग के हो जाते है पौधे की बढ़वार रुक जाती है। वर्षा ऋतु में इस रोग का संक्रमण अधिक होता है।
 सर्वप्रथम इस रोग के लक्षण वाले पौधे दिखाई देते ही उन्हें उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए। यह विषाणु जनित रोग सफेद मक्खी कीट द्वारा स्वस्थ पौधों में फैलाया जाता है। अतः रोग संवाहक कीट के नियंत्रण हेतु आक्सी मिथाइल डेमेटान 1 मिली प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करने से रोग का प्रसारण कम होता है। पीतशिरा रोग प्रतिरोधी किस्मों जैसे अर्का अभय, अर्का अनामिका, परभणी क्रांति इत्यादि का चुनाव करना चाहिए। फसल के चारों ओर 2-3 कतार मक्का बोने से भी रोग का फैलाव नियंत्रित किया जा सकता है।
चूर्णिल आसिताः- इस रोग में भिंडी की पुरानी निचली पत्तियों पर सफेद चूर्ण युक्त हल्के पीले धब्बे पड़ने लगते है। ये सफेद चूर्ण वाले धब्बे काफी तेजी से फैलते है। इस रोग का नियंत्रण न करने पर पैदावार 30 प्रतिशत तक कम हो सकती है। इस रोग के नियंत्रण हेतु घुलनशील गंधक 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर 2 या 3 बार 12-15 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए।
प्ररोह एवं फल छेदकः- इस कीट का प्रकोप वर्षा ऋतु में अधिक होता है। प्रारंभिक अवस्था में इल्ली कोमल तने में छेद करती है जिससे तना सूख जाता है। फूलों पर इसके आक्रमण से फल लगने के पूर्व फूल गिर जाते है। फल लगने पर इल्ली छेदकर उनको खाती है जिससे फल मुड़ जाते हैं एवं खाने योग्य नहीं रहते है।
जैसिडः- ये सुक्ष्म आकार के कीट पत्तियों, कोमल तने एवं फल से रस चूसकर नुकसान पहुंचाते है।
 फल छेदक के द्वारा आक्रमण किये गये फलों एवं तने को काटकर नष्ट कर देना चाहिए। क्विनॉलफास 25 ई.सी. 1.5 मिली लीटर या इंडोसल्फान 1.5 मिली लीटर प्रति लीटर पानी की दर से कीट प्रकोप की मात्रा के अनुसार 2-3 बार छिड़काव करने से जैसिड एवं फल प्ररोह छेदक कीटों का प्रभावी नियंत्रण होता है। फल बनने के उपरांत कीट प्रकोप होने पर ‘फेनवेलरेट’ 0.5 मिली प्रति लीटर पानी में घोलकर उपर्युक्त बनाये कीटनाशक के साथ अदल-बदल कर प्रयोग करें।

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रविवार, 25 अक्तूबर 2009

जैविक खेती की मुख्य आवश्यकता"केंचुआ खाद" -2

आज देश में जैविक खेती की आवश्यकता है, पिछले अंक में इस कम्पोस्ट खाद बनाने के आधार बताये गए थे, इस अंक में आगे चलते हैं, सबसे पहले ये जानना जरूरी है की केंचुआ खाद में कौन-कौन से तत्व पाए जाते हैं, तो लीजिये ......
    1. नाइट्रोजन--    १.२५ से २.५ %
    2. फास्फोरस --  ०.७५ से १.६%
    3. पोटाश ----     ०.५   से १.१ %
    4. कैल्सियम--   ३.०   से ४.०%
    5. मैग्निसियम- ३.०   से ४.०
    6. सल्फर        - १३ पी.पी.एम् 
    7. लोहा           -४५ से ५० पी.पी.एम्
    8. जस्ता         -२५ से ५० पी.पी.एम्
    9. ताम्बा        -०४  से ०५ पी.पी.एम्
    10. मैग्नीज      -६०  से ७० पी.पी.एम् 
    11. पी.एच.       -७    से ७.८० 
    12. कार्बन        -१२:१ 
केंचुआ खाद बनाने के लिए आवश्यकताएं 
  1. केंचुओं का भोजन ------------ समस्त गलन शील एवं सडन शील कार्बनिक पदार्थ 
  2. नमी (पानी) .........................४०%
  3. ताप क्रम .............................८ से ३० डिग्री सेल्सिअस (२४ डिग्री सर्वोत्तम )
  4. अँधेरा (छाया).......................किसी भी प्रकार से छाया करना (रौशनी से बचाव)
  5. हवा-----------------------------केंचुवे के कार्य क्षेत्र में हवा का प्रवाह बना रहे .
  6. उचित पी.एच......................... ४.५ से ७.५ पी.एच अच्छा है 
ये तो थी प्रारंभिक जानकारियां, अब हम केंचुओं के लिए ढेर या बेड बनाने की ओर चलते हैं.
  1. छाया दार स्थान पर केंचुवा खाद बेड / ढेर जमीं के उपर या नीचे २-३ फिट गहरा गड्ढा बनाना चाहिए
  2. गड्ढे की दीवारें मजबूत रहें इसके लिए ईंट या लकडी का उपयोग करना चाहिए
  3. केंचुआ खाद बेड २ पीट या ४ पीट माडल आवश्यकता के अनुसार बनाया जा सकता है.
  4. बेड तैयार होने पर अधसड़े केंचुआ के भोजन पदार्थ को डाल कर आवश्यकतानुसार केंचुए डालना चाहिए.
उत्पादन विधि
  1. केंचुवा खाद बनाने के लिए जमीन, छाया, पानी, कार्बनिक पदार्थ, एवं केंचुओं की आवश्यकता होती है
  2. जमीन पर किसी प्रकार के छायादार स्थान, छप्पर या पेड़ पौधे पर कार्बनिक पदार्थ का ढेर तैयार किया जाता है
  3. ढेर की मोती २-३ फिट एवं ऊंचाई १-२ फिट रखना लाभ दायक होता है,अध् सड़े गोबर एवं पत्तियों से तैयार ढेर पर पानी छिड़क कर ठंडा होने पर ही केंचुए डालना चाहिए. लग-भग ४०% नमी बनाये रखने के लिए आवश्यकतानुसार ढेर पर पानी का छिडकाव किया जाना चाहिए.
केंचुआ खाद उत्पादन में सावधानियां 
  1. बेड पर ताजा गोबर नही डालना चाहिए क्योंकि यह गरम होता है,इससे केंचुए मर जाते हैं.
  2. बेड में नमी व छाया, ८ से ३० डिग्री तक तापमान तथा हवा का पर्याप्त प्रवाह बने रहना चाहिए
  3. केंचुओं को मेंढक, सांप, चिडिया, कौवा, छिपकली एवं लाल चींटियों आदि शत्रुओं से बचाना चाहिए.
  4. गोबर अधसडा एवं पर्याप्त नमी युक्त ही प्रयोग में लाना चाहिए.

केंचुआ खाद के लाभ
  1. केंचुआ खाद मृदा में सूक्ष्म जीवाणुओं को सक्रीय कर पोषक तत्त्व पौधों को उपलब्ध करता है.
  2. केंचुआ खाद के प्रयोग से फलों, सब्जियों, एवं अनाजों के स्वाद, आकर, रंग एवं उत्पादन में वृद्धि होती है,
  3. इसके सूक्ष्म जीवाणु, हारमोन एवं ह्युमिक अम्ल मृदा की पी.एच को संतुलित करते हैं.
  4. केंचुआ खाद के प्रयोग से मृदा की जलधारण क्षमता बढ़ जाती है, जिससे सिंचाई की बचत होती है.
  5. केंचुआ खाद के उपयोग से कम लागत में अच्छी गुणवत्ता के फल सब्जी एवं फसलों का उत्पादन होगा.जिससे उपभोक्ता को सस्ता एवं पौष्टिक भोजन उपलब्ध हो सकेगा .
  6. ग्रामीण क्षेत्र में बडे पैमाने पर रोजगार, आय एवं स्वालंबन में वृद्धि होगी.




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शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2009

जैविक खेती की मुख्य आवश्यकता"केंचुआ खाद"

हम देखते हैं कि बरसात में केंचुए निकलते हैं. ये मल को खाकर मिटटी बनाते हैं. जब हम गाँव में रहते थे थे तो बच्चे बहुत सारे केंचुए पकड़ कर उसे कांटे में लगा कर मत्स्याखेट करते थे, गांवों में केंचुओं को मछली पकड़ने के लिए कांटे में लगा कर चारे के रूप में उपयोग में लिया जाता है, केंचुआ किसानो के लिए मित्र है, इसे "प्रकृति प्रदत्त हलवाहा"भी कहा जाता है. भारत वर्ष में केंचुओं की ५०६ प्रजातियाँ पाई जाती हैं, इनसे वर्मी कम्पोस्ट खाद (केंचुआ खाद) बनता है, इनमे इपीजीइक श्रेणी के केंचुए अपने भोजन, प्रजनन एवं आवासीय विशेषताओं के लिए खाद के लिए उपयोगी मने जाते हैं, इनको सुपर वारं भी कहा जाता है, ये केंचुए मिटटी कम और कार्बनिक पदार्थ ज्यादा खाते हैं, इनका वजन ०.३ से ०.६ ग्राम तक एवं लम्बाई लग-भग ३ इंच होती है.
केंचुआ खाद (वर्मी कम्पोस्ट)
केंचुए कम सड़े कार्बनिक पदार्थों को भोजन के रूप में ग्रहण कर मल -विष्ठा करते हैं उसे वर्मी कास्टिंग कहते हैं, और इनसे प्राप्त इस मल को वर्मी कम्पोस्ट या केंचुआ खाद कहते हैं.
कृषि के उत्पादन वृद्धि में केंचुआ खाद उपयोगी पदार्थ.
  1. कृषि से प्राप्त कूड़ा-कचरा:- अधसड़े पौधों के डंठल, पत्तियां, भूसा, गन्ने की खोई, खरपतवार, फूल, सब्जियों के छिलके,केले के पत्ते, तने, पशुओं के गोबर मूत्र, एवं गोबर गैस का कचरा, सब्जी मंदी का कचरा, रसोई का कूड़ा कचरा आदि से केंचुए की खाद बने जा सकती है.
  2. कृषि उद्योग से प्राप्त कूड़ा-कचरा:- फल प्रसंस्करण इकाई, तेल शोधक कारखाने, चीनी उद्योग, बीज प्रसंस्करण, तेल मीलों एवं नारियल उद्योग आदि के कचरे से भी केंचुआ खाद का निर्माण किया जा सकता है.
  3. गोबर:- ऊपर लिखे पदार्थों को अधसड़े गोबर से मिश्रित कर देने से केंचुआ खाद शीघ्र एवं उत्तम श्रेणी की बनती है, केंचुओं को गोबर एवं पट्टी का मिश्रण अति प्रिय है.
केंचुआ खाद में न डालने योग्य:- पनीर , हड्डी व मांस, तेल, नमक, मिर्च व तेल मसाले, एवं गर्म पदार्थ, इनसे केंचुए मर सकते हैं.
अगले अंक में "केंचुआ खाद" उत्पादन विधि बताई जायेगी.
आज पढिये "रेल दुर्घटना की कहानी-मेरी अपनी जुबानी"
(चित्र-गूगल से साभार)

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शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009

दीप पर्व की शुभकामनाएं



जिनके    घर  में   अँधियारा है
उनको  भी    उजियारा     बाँटें
 
कदम-कदम पर दुःख के पर्वत
आओ   उनको   मिल कर काटें
 
जीवन का  है  लक्ष्य  यही  हम
हर    होठों    पर    लायें  लाली
 
हर   चेहरा   मुस्कान   भरा  हो
हर    आँगन    नाचे   खुशहाली
 
मित्रों मिल जुल कर सब मनाएं
समझो   तब     सच्ची   दीवाली
 
 
"आपको दीपावली की शुभकामनायें" 
 

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शनिवार, 10 अक्तूबर 2009

जैविक खेती-आय में वृद्धि-गाँव की समृद्धि

हमारे देश में जैविक खेती का इतिहास लग-भग ५००० साल से भी अधिक पुराना है. यह सजीव जैविक खेती ही थी,जिसने इतने लम्बे समय तक अनवरत अन्न उत्पादन के साथ मिटटी की उर्वरा शक्ति को बनाये रखा जिससे खाद्य सुरक्षा एवं पोषणीय सुरक्षा संभव हो सकती है.
जैविक खादों के गुण-
  1. कम लागत - जैविक खादें व् जैविक कीट  तथा खर-पतवार नियंत्रक रासायनिक उर्वरकों आदि की तुलना में कम खर्च (लग-भग 75 से 85% ) में तैयार  कर सकते हैं,
  2. स्थानीय उपलब्धता-जैविक कृषि उत्पादों की उपलब्धता ग्राम स्तर पर ही हो सकती है, स्थानीय संसाधनों के विवेकपूर्ण  प्रयोग से जैविक खादें आसानी से तैयार की जा सकती हैं,
  3. सुग्राहयता- विषहीन, प्रदुषणमूलक, प्राकृतिक संसाधनों से तैयार की गयी जैविक खादें आसानी से अपनाई जा सकती हैं, जैविक खाद पर्यावरण मित्रवत होती हैं,
  4. उत्पादकता- जैविक खादों से उत्पादित पदार्थों की गुणवत्ता,पौष्टिकता, एवं प्रति उनित उत्पादन क्षमता में निरंतर वृद्धि होती है,
  5. पोषणीयता- जैविक खादों के संतुलित प्रयोग से मृदा की भौतिक, रासायनिक व जैविक संरचना में गुणोत्तर वृद्धि होती है. जैविक उत्पाद अधिक स्वास्थ्य वर्धक होते है,
  6. विविधिकरण- जैविक तकनीक व स्थानीय कृषि तकनीक से समन्वित कृषि का विकास होता है. जैविक खेती और जैव विभिन्नता व विविधिकरण के संतुलित विकास में सहायक होती है,
  7. किसान एवं किसानी मित्रवत- कम लगत, स्थानीय निर्माण व  उपयोगिता के विभिन्न गुण जैविक खादों को किसान के लिए मित्रवत  बनाते हैं. जैविक खाद से मृदा में जलधारण क्षमता, पी.एच,मान, जीवाश्म का अनुपात आदि में वृद्धि होती है.
  8. आय में वृद्धि-गाँव की समृद्धि-जैविक खेती में कम लागत व गुणोत्तर उत्पादन से सकल आय में बढोतरी होती है.
  9. निर्यात में प्रोत्साहन- जैविक कृषि उत्पादों की बिक्री व निर्यात में प्रोत्साहन तो मिलता ही है, कृषि उत्पादों पर बाज़ार में ३०-४०% अधिक मूल्य भी मिलता है.
  10. खरपतवार एवं कीट प्रबंधन- जैविक खादों के नित्य प्रयोग से रासायनिक विधा की खेती-बाडी की तुलना में खरपतवार व कीडों के प्रकोप में कमी आती है. फलत: रासायनिक खरपतवार व कीटनाशी  पर खर्च तथा उनके विभिन्न हानिकारक आयाम जैसे मित्र कीटों में कमी, प्रदुषण, खाद्य श्रृंखला में विष प्रकोप आदि से बचा जा सकता है.
  11. भण्डारण क्षमता- जैविक खादों के प्रयोग से उत्पादित कृषि उत्पादनों में भण्डारण क्षमता तुलनात्मक रूप से लग-भग ३०-४०% अधिक होती है
इस प्रकार जैविक खेती से लाभ ही लाभ हैं, इसलिए हमें जैविक खेती को अपनाना आवश्यक हो गया है. 

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शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2009

दुर्लभ वन औषधियों का संरक्षण अत्यावश्यक


दोस्तों आज आज २ अक्तूबर है और हमारे भारत के दो महापुरुषों का जन्म दिन है,हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी एवं जय जवान और जय किसान का नारा देने वाले सशक्त नेता लाल बहदुर शास्त्री जी का और आज ही मैंने ब्लॉग पे अपनी साईट शुरू की है,दोनों की सोच एक ही थी कि गावं और कृषि-कृषक की तरक्की से है देश की तरक्की हो सकती है,मैं एक कृषि उद्यानिकी वैज्ञानिक हूँ,सोचा की जब थोडा रिशर्च कार्य आदि से समय मिलेगा तो कुछ समय अपने ब्लॉग पर भी दूंगा तथा उद्यानिकी सम्बन्धी यदि कोई समस्या है तो उसका भी निराकरण करने का पुरजोर प्रयास करूँगा,आज देश में दुर्लभ वन औषधियों की कमी हो रही है,विलुप्त हो रही वन औषधियों को बचाना एक बड़ी चुनौती है,देश के सघन वनों में अभी भी वन औषधियों हर्रा, बहेरा,आंवला, निर्गुन्डी, बबूल,नीम,माजूफल, अकरकरा, पीपर, आदि बहुत सी मोजूद हैं, औद्योगीकरण एवं उत्खनन के कारन इन वन एवं औषधियों का विनाश होता जा रहा है, यदि हमारे में  इनको बचाने के प्रति जागरूकता आती है तो हम अवश्य ही इस दुर्लभ वन औषधियों का संरक्षण कर पाएंगे,इसका एक उपाय इनकी खेती करना  है.आज प्रारम्भ है इसलिए कुछ कम लिख पा रहा हूँ.आगे हार्टिकल्चर हेल्प का कार्यक्रम जारी रहेगा. 

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